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गीतांजलि (पेपरबैक, रबिन्द्रनाथ ठाकुर)

गीतांजलि (पेपरबैक, रबिन्द्रनाथ ठाकुर)

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त विश्व्कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के उदात्त व्यक्तित्व तथा आपकी अमर रचनाओं के सन्दर्भ में, चाहे पध हो या गध, कुछ भी लिखना कहना 'सूरज को दीपक दिखने की तरह ही अर्थहीन है, क्योंकि आपकी अनुभूतियाँ तथा अभिव्यक्ति दिगन्त व्यापिनी तथा कालजयी है। आपकी लेखनी आम-मानव के अंतरमन को प्रेरित करने में सदा सफल रही है। आपकी संग्रहणीय काव्याभिव्यक्ति 'गीतांजलि' में मुख्या विषय दर्शन है, जिसकी एक एक पंक्ति किसी भी दिग्भ्रमित को सरक एवं सहज मार्ग सुझाने में सक्षम है। प्रकृति के अंतःस्थल में पैठकर उसके गूढरहस्यो को पढ़ने का अभिनन्दनीय प्रयास करते हुए आपने प्रकृति को मानव की सहचरी माना है, जो साहित्य जगत में शाशवत शिवत्व का घोतक है। विश्व प्रख्यात 'गीतांजलि में जीवन के शुभारंभ काल से अंतिम काल-बिंदु तक आपने मानव का मूल लक्ष्य यही माना है की जीव एवं शिव में एकाकार ही प्रथम एवं अंतिम लक्ष्य है। उदाहरणार्थ आपके श्री चरणों में मेरा मस्तक नत कर दो, सारा अहंकार मेरा, आँसुओं में मंजित कर दो। फिर आप आगे कहते हैं- वह दीप जो भवन में, तम में जला चुका हूँ, आई पुकार मेरी, अब है न और देरी। प्रस्थान हेतु यात्रा के, पग बढ़ा चुका हूँ अवकाश पा चुका हूँ अब दो मुझे बिदाई ।

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